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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: कविर्भार्गवः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

घृ꣣तं꣡ प꣢वस्व꣣ धा꣡र꣢या य꣣ज्ञे꣡षु꣢ देव꣣वी꣡त꣢मः । अ꣣स्म꣡भ्यं꣢ वृ꣣ष्टि꣡मा प꣢꣯व ॥१४३७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

घृतं पवस्व धारया यज्ञेषु देववीतमः । अस्मभ्यं वृष्टिमा पव ॥१४३७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

घृ꣣त꣢म् । प꣣वस्व । धा꣡र꣢꣯या । य꣣ज्ञे꣡षु꣢ । दे꣣ववी꣡त꣢मः । दे꣣व । वी꣡त꣢꣯मः । अ꣣स्म꣡भ्य꣢म् । वृ꣣ष्टि꣢म् । आ । प꣣व ॥१४३७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1437 | (कौथोम) 6 » 3 » 1 » 3 | (रानायाणीय) 13 » 1 » 1 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे जगत्पति ! (यज्ञेषु) उपासनारूप यज्ञों में (देववीतमः) अतिशय दिव्य गुणों को प्राप्त करानेवाले आप (धारया) धारा रूप में (घृतम्) स्नेह तथा दीप्ति को (पवस्व) हमारे लिए प्रेरित करो। (अस्मभ्यम्) हम उपासकों के लिए (वृष्टिम्) आनन्दवर्षा को (आ पव) रिमझिम बरसाओ ॥३॥

भावार्थभाषाः -

उपासना किया हुआ जगदीश्वर उपासक के लिए अपने प्रेम, आनन्द और अक्षयतेज को प्रदान करता है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनः परमेश्वरं प्रार्थयते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे जगत्पते ! (यज्ञेषु) उपासनारूपेषु अध्वरेषु (देववीतमः) अतिशयेन दिव्यगुणानां प्रापयिता त्वम् (धारया) प्रवाहसन्तत्या (घृतम्) स्नेहं दीप्तिं च। [घृ क्षरणदीप्त्योः, जुहोत्यादिः।] (पवस्व) अस्मभ्यं प्रेरय। (अस्मभ्यम्) उपासकेभ्यः (वृष्टिम्) आनन्दवर्षाम् (आ पव) आक्षारय ॥३॥

भावार्थभाषाः -

उपासितो जगदीश्वर उपासकाय स्वकीयं स्नेहमानन्दमजस्रं तेजश्च प्रयच्छति ॥३॥